कुंभ मेले की शुरुआत

 कुंभ मेले की शुरुआत का इतिहास बहुत ही प्राचीन और रोचक है। हिंदू धर्म के पौराणिक ग्रंथों के अनुसार, कुंभ मेले की शुरुआत समुद्र मंथन की कथा से जुड़ी हुई है।


पौराणिक कथा के अनुसार, जब देवता और असुरों ने मिलकर अमृत प्राप्ति के लिए समुद्र मंथन किया, तब समुद्र से अनेक रत्न और वस्तुएं निकलीं। अंत में, अमृत कलश प्रकट हुआ। जैसे ही अमृत कलश प्रकट हुआ, उसे प्राप्त करने के लिए देवताओं और असुरों में युद्ध छिड़ गया। यह युद्ध बारह दिनों और बारह रातों तक चला, जो कि पृथ्वी के अनुसार बारह वर्षों के बराबर था।

इस युद्ध के दौरान, अमृत कलश की कुछ बूंदें धरती पर चार स्थानों - प्रयागराज (इलाहाबाद), हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में गिरीं। इन्हीं स्थानों पर कुंभ मेले का आयोजन किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि कुंभ मेले के दौरान इन स्थलों पर स्नान करने से व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है और जीवन के पापों का नाश होता है।

कुंभ मेले का आयोजन प्रत्येक 12 वर्ष के अंतराल में किया जाता है, जिसमें करोड़ों श्रद्धालु भाग लेते हैं। इसमें साधु-संतों, महात्माओं और आम जनमानस की भागीदारी होती है। कुंभ मेले में विभिन्न धार्मिक अनुष्ठान, प्रवचन, भजन-कीर्तन और सामाजिक कार्य भी किए जाते हैं।

कुंभ मेले के चार प्रकार होते हैं:

  1. पूर्ण कुंभ मेला: यह हर 12 वर्ष में प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में आयोजित किया जाता है।

  2. अर्ध कुंभ मेला: यह प्रत्येक 6 वर्ष में प्रयागराज और हरिद्वार में आयोजित किया जाता है।

  3. महा कुंभ मेला: यह केवल प्रयागराज में 144 वर्षों के बाद आयोजित किया जाता है।

  4. कुंभ मेला: यह प्रत्येक 3 वर्षों में चारों स्थलों में से किसी एक पर आयोजित होता है।

कुंभ मेला न केवल धार्मिक बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। यह दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक मेला है, जिसमें भारत ही नहीं बल्कि विदेशों से भी श्रद्धालु आते हैं।



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