कुंभ मेले की शुरुआत का इतिहास बहुत ही प्राचीन और रोचक है। हिंदू धर्म के पौराणिक ग्रंथों के अनुसार, कुंभ मेले की शुरुआत समुद्र मंथन की कथा से जुड़ी हुई है।
पौराणिक कथा के अनुसार, जब देवता और असुरों ने मिलकर अमृत प्राप्ति के लिए समुद्र मंथन किया, तब समुद्र से अनेक रत्न और वस्तुएं निकलीं। अंत में, अमृत कलश प्रकट हुआ। जैसे ही अमृत कलश प्रकट हुआ, उसे प्राप्त करने के लिए देवताओं और असुरों में युद्ध छिड़ गया। यह युद्ध बारह दिनों और बारह रातों तक चला, जो कि पृथ्वी के अनुसार बारह वर्षों के बराबर था।
इस युद्ध के दौरान, अमृत कलश की कुछ बूंदें धरती पर चार स्थानों - प्रयागराज (इलाहाबाद), हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में गिरीं। इन्हीं स्थानों पर कुंभ मेले का आयोजन किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि कुंभ मेले के दौरान इन स्थलों पर स्नान करने से व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है और जीवन के पापों का नाश होता है।
भगवान श्रीकृष्ण का समुद्र मंथन में अप्रत्यक्ष योगदान महत्वपूर्ण माना जाता है। उनके मार्गदर्शन में देवताओं को यह सलाह दी गई थी कि वे असुरों के साथ मिलकर समुद्र मंथन करें और अमृत प्राप्त करें। कृष्ण की बुद्धिमत्ता और नीतियों के कारण देवताओं को अमृत की प्राप्ति हुई और असुरों को छला गया। उन्होंने मोहिनी रूप में भगवान विष्णु को अमृत वितरण के लिए प्रेरित किया, जिससे असुर अमृत पाने से वंचित रह गए।
भगवान श्रीकृष्ण का कुंभ मेले से भी गहरा संबंध है। ऐसा माना जाता है कि द्वारका के राजा के रूप में, उन्होंने धर्म और ज्ञान के प्रसार के लिए कुंभ जैसे आयोजनों को प्रोत्साहित किया। पौराणिक कथाओं में उल्लेख है कि श्रीकृष्ण ने अपने जीवनकाल में विभिन्न तीर्थ स्थलों पर स्नान कर धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लिया था, जिससे कुंभ मेले की परंपरा को और अधिक महत्व मिला।
कुंभ मेले का आयोजन प्रत्येक 12 वर्ष के अंतराल में किया जाता है, जिसमें करोड़ों श्रद्धालु भाग लेते हैं। इसमें साधु-संतों, महात्माओं और आम जनमानस की भागीदारी होती है। कुंभ मेले में विभिन्न धार्मिक अनुष्ठान, प्रवचन, भजन-कीर्तन और सामाजिक कार्य भी किए जाते हैं।

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