वृंदावन के राधा वल्लभ मंदिर में हर रोज़ भक्तों की भीड़ लगी रहती थी। सभी ठाकुर जी के दिव्य रूप और उनकी लीला को देखकर आनंदित होते थे। लेकिन ठाकुर जी के नटखट स्वभाव की कहानी जितनी सुनी जाती थी, उतनी ही देखी भी जाती थी।
एक दिन मंदिर के पुजारी जी ने तय किया कि ठाकुर जी को कुछ अलग प्रकार का भोग चढ़ाया जाए। उन्होंने सोचा, "हर दिन मक्खन-मिश्री तो चढ़ती ही है, क्यों न आज उन्हें गर्मागरम खीर का भोग चढ़ाया जाए?"
तो पंडित जी बड़े प्यार से खीर बनाकर लाए और ठाकुर जी के सामने रख दी। भोग लगाने के बाद उन्होंने सोचा, "जब तक ठाकुर जी खीर का आनंद ले रहे हैं, तब तक मैं थोड़ा आराम कर लेता हूं।" यह सोचकर वह मंदिर के बाहर एक पेड़ के नीचे सोने चले गए।
लेकिन यह क्या! जैसे ही पंडित जी गए, राधा वल्लभ जी की मूर्ति में जान आ गई। ठाकुर जी ने अपनी मूर्ति से बाहर आकर बड़े चाव से खीर खानी शुरू कर दी। खीर इतनी स्वादिष्ट थी कि वह सबकुछ खा गए और कटोरा खाली छोड़ दिया।
पंडित जी जब वापस आए, तो कटोरा देखकर चौंक गए। वह सोचने लगे, "अरे, मैंने तो इतनी सारी खीर बनाई थी, यह सब कहां गई?" तभी उन्हें एक बच्चे की हंसी सुनाई दी।
उन्होंने चारों ओर देखा, लेकिन कोई नजर नहीं आया। हंसी फिर से आई। इस बार पंडित जी समझ गए कि यह ठाकुर जी की कोई लीला है। उन्होंने मुस्कुराकर कहा, "ठाकुर जी, अगर आपको खीर इतनी पसंद आई, तो अगले हफ्ते पूरी कढ़ाई भरकर बना दूंगा। लेकिन अगली बार थोड़ा बचा भी दिया कीजिए, ताकि मैं भी प्रसाद पा सकूं!"
राधा वल्लभ जी अपनी नटखट मुस्कान के साथ पुजारी जी के सामने प्रकट हुए और बोले, "पंडित जी, खीर इतनी स्वादिष्ट थी कि सब खा गया। अगली बार थोड़ी और बना देना, हम दोनों मिलकर खाएंगे।"
यह सुनकर पंडित जी और वहां मौजूद भक्त जोर-जोर से हंसने लगे। तब से, राधा वल्लभ मंदिर में खीर का भोग एक परंपरा बन गया। भक्त इस कहानी को सुनकर ठाकुर जी की नटखटता की प्रशंसा करते नहीं थकते।

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